दुआओ से एक ख्वाइश रंग लायी थी मेरी ..
ख्वाबों की परिभाषा साबित हो आयी थी मेरी ..
ख़ुशी और आंसू झलक आये थे ऐसे ..
एक लम्हे में ज़िन्दगी उतर आये हो जैसे ..
पर महज एक मंज़र कहाँ है ज़िन्दगी,
हजारो दिन-रात का उलट-फेर है ये कहलाती .
कितने लम्हे है जिनका खुलना अभी है बाकी,
कई एहसासों में घुलना अभी है बाकी .
सब कुछ पास है , जैसे साथ हो दुनिया पूरी ,
फिर भी जाने किसे सुकून से हो एक दूरी .
भीड़ में खुद को तालाश लू में ऐसे,
मंजिल का है पता पर रास्ते से अनजान हूँ जैसे.
पंछी सी आज़ाद आसमान में उड़ जाऊ कही,
फिर हवाओ सी लहराऊ तो सही .
खो जाऊ अपनी ही धुन में इस तरह,
की दुनिया-दारी की तरंगो से न टकराऊ कभी.
या रह जाऊ मैं अपने ही जहाँ में ,
ढालू खुद को फिर दुनिया के रस में ,
जीत पाऊ बस अपने ही आप से ,
कोशिश ऐसे कर पाऊ में ...
कहा खड़ी हूँ ,कहा तक जाना है ,
क्या ये कभी जान पाऊँगी मैं ?
क्या है दिल में , और क्या जुबान पे है,
क्या चेहरों के मुखौटो को पहचान पाऊँगी मैं ?
शांति और सुकून जैसे खोया सा है ,
तो क्या आशा-निराशा से फिर परे रह पाऊँगी मैं ?
लायी थी न कुछ साथ , न ले जाना है ,
खुबसूरत रचना....
जवाब देंहटाएंSukria Sushma ji YE meri MITra AKAnksha DWARA rachit hai
जवाब देंहटाएं