27-11-२०११ 5:30 pm
द्वारा मेघा सूरी जी
“पंछी” वो एक
उड़ता नील गगन में
“ख़ुशी” समेट संग अपने अनेक
छूता नित नयी ऊँचाइया
लेकर “शून्यता” की गहराइया
“भाव” पनपते देख मन में
सिमट लेता अपने पंखो में
छाया में भी डूबती किरने संजोता
अँधेरे में उनसे मुस्कान बिखेरता
झील की सुन्दरता देख विस्मय हो जाता
आँखों में उसे अपनी बसा लेता
“दूर” से हसीं दुनिया के रंग में
हर दिन नए रंग वो भरता
पास जिन्हें देख अपने
वो न जाने क्यूँ विचलित हो जाता ..
चाहे हो सूरज की भीषण गर्मी
या “शीत” लहर का कहर …
हर आते जाते मौसम में वो
बस "निश्चल-स्नेह" बरसता …
कोमल उसका अन्तहकरन
“निर्मल” जल के भांति..
सब “रूप” में सवर जाता ..
निर्भाव जो खुद को बतलाता …
ले आँचल में “प्रेम का संसार”
अनंत की उधान उड़ता जाता …
फिर न जाने क्यूँ
देख अपनी तस्वीर उस मन में
वो ऐसे डर जाता …??